इस देश में आम लोगों की जिंदगी से सस्ती कुछ भी नहीं। ये यूं ही नहीं कह रहे। क्या आपने कभी सोचा है कि इस तरह के भगदड़ धार्मिक कार्यक्रमों, धर्मस्थलों या मजहबी जलसों में ही क्यों होती हैं? म्यूजिक कॉन्सर्ट हो या स्पोर्ट्स स्टेडियम या फिर चुनावी रैलियां…भीड़ तो वहां भी जुटती हैं, लेकिन वहां तो इस तरह के हादसे आम नहीं है। वजह यही है कि वहां बदइंतजामी नहीं होती, लोगों को उनके हाल पर नहीं छोड़ा जाता, क्राउड मैनेजमेंट के पुख्ता इंतजाम होते हैं। लेकिन धार्मिक कार्यक्रमों में बदइंतजामी का ही बोलबाला रहता है, कुंभ या महाकुंभ जैसा आयोजन अपवाद हो सकते हैं। हाथरस में क्या हुआ? सैकड़ों-हजारों नहीं बल्कि लाख-दो लाख की भीड़ जुटी थी। न व्यस्थित ढंग से एंट्री की व्यवस्था थी और न ही एग्जिट की। क्राउड मैनेजमेंट के नाम पर कुछ पुलिसवाले तैनात थे। इतनी बड़ी भीड़ की जुटान और मौके पर एक भी एंबुलेंस नहीं। अग्निशमन की कोई व्यवस्था नहीं। खेत में पांडाल बना दिया गया। पांडाल तक जाने वाल रास्ते का अता-पता नहीं। अगर रास्ता जैसा कुछ था भी तो हल्की सी ही बारिश के बाद फिसलन भरे कीचड़ में तब्दील हो चुका था। ये सबकुछ हादसे को दावत देने की ही तरह था।
आजकल स्वयंभू बाबा, कथित चमत्कारिक धर्मगुरु चाहे जिस भी धर्म से धर्म से ताल्लुक रखते हों, ने धर्म को अब कारोबार बना दिया है। आस्था का बाजार सजा रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा भीड़ जुटाने को दुकान सजाने की तरह देख रहे। जितनी ज्यादा भीड़, उस कथित बाबा की उतनी ज्यादा ब्रैंड वैल्यू। हाथरस के मामले को ही देख लीजिए। बताया जा रहा है कि 80 हजार लोगों भीड़ के लिए प्रशासन से इजाजत मांगी गई थी लेकिन भीड़ जुटी लाख में। प्रशासन भी जैसे कुंभकरनी नींद में सोया रहा। ऐसे कार्यक्रमों को इजाजत देने के बाद आखिर ये देखना किसकी जिम्मेदारी है कि जिन शर्तों पर मंजूरी दी गई है, उनका पालन हो रहा है या नहीं। क्या प्रशासन इजाजत देकर भूल जाता है। वहां लाख-दो लाख की भीड़ कैसे जुटने दी गई। हाथरस कांड सीधे-सीधे घोर प्रशासनिक लापरवाही का नतीजा है।
लेकिन क्या ऐसे हादसों के लिए सिर्फ प्रशासनिक लापरवाही ही जिम्मेदार होती है? नहीं, ऐसा नहीं है। अगर हर तरह के जरूरी इंतजाम कर भी लिए जाएं तब भी इस बात की गारंटी नहीं है कि इस तरह के हादसे नहीं होंगे। इसकी वजह भीड़ का पागलपन है, जुनून है। आस्था ठीक है, लेकिन अंध आस्था खतरनाक है। आस्था को तर्क की कसौटी पर नहीं कसा जाना चाहिए लेकिन चमत्कार की आस में पागलपन को आस्था तो नहीं ही कहा जा सकता। हाथरस वाले स्वयंभू बाबा के चरणरज यानी उनके पैरों की धूल को सिर से लगाने के लिए अनुयायियों में होड़ लगी रहती है। चलते वक्त जमीन पर पड़े जूते के निशान के नीचे की धूल तो छोड़िए, बाबा की गाड़ी के पहिये जिस लीक से गुजरते हैं, उसे तक सिर से लगाने की होड़ लगी रहती है। ये पागलपन नहीं तो और क्या है। बताया जा रहा है कि बाबा के आश्रम में लगे हैंडपंपों से पानी लेने के लिए लोगों की भीड़ लगी रहती है। ये उम्मीद रहती है कि हैंडपंप का पानी चमत्कार करेगा। दुखों को हरेगा। मनोकामना पूरा करेगा। आखिर लोग कब समझेंगे कि ये पागलपन ठीक नहीं। हाथरस में भगदड़ की एक वजह ये भी बताई जा रही है कि बाबा जब सत्संग को खत्म कर जाने लगे तो उनके ‘चरणरज’ को सिर से लगाने के लिए भीड़ बेकाबू हो गई। भगदड़ मच गई। ऊपर से बारिश के बाद कीचड़ और फिसलन भरे रास्ते की वजह से लोग फिसलते गए। एक के ऊपर एक गिरते गए और पांडाल जैसे मौत के नंगे नाच का मंच बन गया।
हाथरस कांड का दोहराव न हो, इसके लिए जरूरी है कि ‘आस्था के बेरोक-टोक कारोबार’ पर अंकुश लगे। भीड़ को बाबा अपनी ब्रैंड वैल्यू बढ़ाने का औजार बनाने की कोशिश करेंगे लेकिन इस पर अंकुश लगाना होगा। जरूरी है कि ऐसे कार्यक्रमों में लोगों की जुटान पर एक पाबंदी लगाई जाए। कोई एक संख्या तय करनी होगी जिससे ज्यादा भीड़ जुटाने की इजाजत किसी भी कीमत पर न दी जाए। लेकिन सबसे जरूरी है प्रशासन का कुंभकरनी नींद से जागना। आम लोगों को यूं ही मरने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता।